-:आदर्श शिष्य धर्म:-
शिष्य वही है जो गुरू के पास अपने को हर तरह से झुका दे पूरी श्रद्धा से तभी गुरू शिष्य के अन्तर्मन मे प्रवेश कर क्रिया और कृपा कर पायेंगे।शिष्य बनना बहुत मुश्किल है,बड़े बड़े भक्त भी गुरू के समीप जाते है,गुरू कृपा से दीक्षा भी मिल जाती है परन्तु गुरू पर पूर्ण आस्था कभी नहीं बना पाते।दीक्षा लेकर भी शिष्य सरल चित न होकर अंहकारी बन जाये तो अध्यात्मिक धरातल पर कभी भी आगे नहीं बढ सकता।आज गुरू की कमी नहीं है,तथा शिष्य भी बहुत मिल जाते है लेकिन जो सिद्ध गुरू है वहाँ निम्न स्तरीय लोग पहुँच ही नहीं पाते,अगर दैव योग से पहुँच जाये तो उन्हें समझ नहीं पाते,और दैव कृपा से थोड़ा समझ में आया भी
तो गुरू की एक परिक्षा से ही भाग जाते है,और जाकर गुरू के बारे में अनाप,शनाप बोलते हैं ऐसे लोग क्या कभी शिष्य बन पायेंगे। गुरू से एकाध मंत्र मिल जाने के बाद लोग स्वयं गुरू बन जाते है।गुरू का रहस्य शिष्य ही अनुभव कर पाता है।शिष्य के मानस में तो गुरू,हृद्वय तथा आज्ञा चक्र में हमेशा विराजमान है।गुरू,शिव है तथा शिव ही एकमात्र गुरू हैं।इसी कारण गुरू को परम ब्रह्म कहा गया है यानि गुरू आदि,अंत दोनों जगह विराजमान है।यह लेख मैं अपने गुरूदेवों के प्रसन्नार्थ लिख रहा हूँ कारण वे सभी बड़े पुण्यात्मा है जो अपने गुरू के प्रति समर्पित है।गणेश क्यों प्रथम पूजनीय है,इसलिये कि जगत गुरू माता पिता का ही परिक्रमा कर यह बोध कराते है कि जीवन में माता पिता ही प्रथम गुरू है,भूल से भी माता पिता का अनादर नहीं करना चाहिए नहीं तो अध्यात्मिक यात्रा में सफलता मिलना मुश्किल हो जाता है।गुरू जैसे भी हो अगर हम सरलचित हैं,तो गुरू कृपा का लाभ होता है।आप जिस लायक है,वैसे ही गुरू जीवन में मिल जाते है।कभी कभी ऐसा भी होता है की आप किसी सामान्य गुरू की ही बहुत दिल से सेवा करते है और इसके फलस्वरूप सद्गुरू की कृपा प्राप्त हो जाती है।आपने सुना होगा कि एक गुरू जो शिवभक्त थे उन्होनें अपने शिष्य को शिव मंत्र प्रदान किया था।एक बार शिष्य शिव मंत्र का जाप कर रहा था कि उसी समय गुरू जी आ गये तो शिष्य ने सोचा कि गुरू जी भी शिव के ही भक्त है और अभी मैं शिव पूजन कर रहा हूँ,इस समय पूजन छोड़ गुरू को प्रणाम क्यों करूँ,जबकि शास्त्र कहता है गुरू के आते सब साधना रोक गुरू की सेवा एवं आज्ञा से चले।इस गलती के कारण शिव प्रकट होकर शिष्य को दण्ड देने जा रहे थे,तो फिर गुरू ने भावमयी दिव्य स्तुति कर शिव के कोप से शिष्य को बचाया।जीवन में जिस भी गुरू से आपको थोड़ा भी अध्यात्मिक लाभ मिला हो वो सभी प्यारे है लेकिन अंहकारी शिष्य को जब सदगुरू मिल जाते है तो वे नीचे के गुरू का अपमान,तथा उन्हें निम्न स्तरीय समझ लेता है इस कारण उसका अध्यात्मिक प्रगति सदगुरू के पास जाकर भी नहीं होता।सदगुरू साक्षात शिव ही है और शिव गुरूओं के गुरु यानि व्यासपीठ पर बैठे जगत गुरू हैं।अगर शिव ने मुझे इतने गुरू नहीं दिये रहते तो क्या मेरा प्रगति होता इस कारण मेरे सभी गुरू शिव जैसे भोलेभाले है जो मुझे आगे बढाने में परम कृपालु रहें।।लोग अपने माता पिता को कष्ट देते है,किसी से प्रेम नही कर सकते अपने अंहकार में गलती करते हुए भी उसे सही समझ लेते है वे सदगुरू के पास जाकर भी क्या पायेंगे।इस कारण आदर्श शिष्य बनने की कोशिश करनी चाहिए तभी गुरू की पुर्ण कृपा होगी।मैने देखा है अच्छे गुरू से दीक्षा लेने के बाद भी लोग अनुशासन भंग करते है तथा और भी गलत कार्य करने लगते है तथा कहते है गुरू जी पर भरोसा और श्रद्धा है,वे सब सम्हाल देंगे,ऐसे शिष्य है आज के।
शिष्य वही है जो गुरू के पास अपने को हर तरह से झुका दे पूरी श्रद्धा से तभी गुरू शिष्य के अन्तर्मन मे प्रवेश कर क्रिया और कृपा कर पायेंगे।शिष्य बनना बहुत मुश्किल है,बड़े बड़े भक्त भी गुरू के समीप जाते है,गुरू कृपा से दीक्षा भी मिल जाती है परन्तु गुरू पर पूर्ण आस्था कभी नहीं बना पाते।दीक्षा लेकर भी शिष्य सरल चित न होकर अंहकारी बन जाये तो अध्यात्मिक धरातल पर कभी भी आगे नहीं बढ सकता।आज गुरू की कमी नहीं है,तथा शिष्य भी बहुत मिल जाते है लेकिन जो सिद्ध गुरू है वहाँ निम्न स्तरीय लोग पहुँच ही नहीं पाते,अगर दैव योग से पहुँच जाये तो उन्हें समझ नहीं पाते,और दैव कृपा से थोड़ा समझ में आया भी
तो गुरू की एक परिक्षा से ही भाग जाते है,और जाकर गुरू के बारे में अनाप,शनाप बोलते हैं ऐसे लोग क्या कभी शिष्य बन पायेंगे। गुरू से एकाध मंत्र मिल जाने के बाद लोग स्वयं गुरू बन जाते है।गुरू का रहस्य शिष्य ही अनुभव कर पाता है।शिष्य के मानस में तो गुरू,हृद्वय तथा आज्ञा चक्र में हमेशा विराजमान है।गुरू,शिव है तथा शिव ही एकमात्र गुरू हैं।इसी कारण गुरू को परम ब्रह्म कहा गया है यानि गुरू आदि,अंत दोनों जगह विराजमान है।यह लेख मैं अपने गुरूदेवों के प्रसन्नार्थ लिख रहा हूँ कारण वे सभी बड़े पुण्यात्मा है जो अपने गुरू के प्रति समर्पित है।गणेश क्यों प्रथम पूजनीय है,इसलिये कि जगत गुरू माता पिता का ही परिक्रमा कर यह बोध कराते है कि जीवन में माता पिता ही प्रथम गुरू है,भूल से भी माता पिता का अनादर नहीं करना चाहिए नहीं तो अध्यात्मिक यात्रा में सफलता मिलना मुश्किल हो जाता है।गुरू जैसे भी हो अगर हम सरलचित हैं,तो गुरू कृपा का लाभ होता है।आप जिस लायक है,वैसे ही गुरू जीवन में मिल जाते है।कभी कभी ऐसा भी होता है की आप किसी सामान्य गुरू की ही बहुत दिल से सेवा करते है और इसके फलस्वरूप सद्गुरू की कृपा प्राप्त हो जाती है।आपने सुना होगा कि एक गुरू जो शिवभक्त थे उन्होनें अपने शिष्य को शिव मंत्र प्रदान किया था।एक बार शिष्य शिव मंत्र का जाप कर रहा था कि उसी समय गुरू जी आ गये तो शिष्य ने सोचा कि गुरू जी भी शिव के ही भक्त है और अभी मैं शिव पूजन कर रहा हूँ,इस समय पूजन छोड़ गुरू को प्रणाम क्यों करूँ,जबकि शास्त्र कहता है गुरू के आते सब साधना रोक गुरू की सेवा एवं आज्ञा से चले।इस गलती के कारण शिव प्रकट होकर शिष्य को दण्ड देने जा रहे थे,तो फिर गुरू ने भावमयी दिव्य स्तुति कर शिव के कोप से शिष्य को बचाया।जीवन में जिस भी गुरू से आपको थोड़ा भी अध्यात्मिक लाभ मिला हो वो सभी प्यारे है लेकिन अंहकारी शिष्य को जब सदगुरू मिल जाते है तो वे नीचे के गुरू का अपमान,तथा उन्हें निम्न स्तरीय समझ लेता है इस कारण उसका अध्यात्मिक प्रगति सदगुरू के पास जाकर भी नहीं होता।सदगुरू साक्षात शिव ही है और शिव गुरूओं के गुरु यानि व्यासपीठ पर बैठे जगत गुरू हैं।अगर शिव ने मुझे इतने गुरू नहीं दिये रहते तो क्या मेरा प्रगति होता इस कारण मेरे सभी गुरू शिव जैसे भोलेभाले है जो मुझे आगे बढाने में परम कृपालु रहें।।लोग अपने माता पिता को कष्ट देते है,किसी से प्रेम नही कर सकते अपने अंहकार में गलती करते हुए भी उसे सही समझ लेते है वे सदगुरू के पास जाकर भी क्या पायेंगे।इस कारण आदर्श शिष्य बनने की कोशिश करनी चाहिए तभी गुरू की पुर्ण कृपा होगी।मैने देखा है अच्छे गुरू से दीक्षा लेने के बाद भी लोग अनुशासन भंग करते है तथा और भी गलत कार्य करने लगते है तथा कहते है गुरू जी पर भरोसा और श्रद्धा है,वे सब सम्हाल देंगे,ऐसे शिष्य है आज के।